यूँ भी दर्द-ए-ग़ैर बंटाया जा सकता है
आंसू अपनी आँख में लाया जा सकता है
खुद को अलग करोगे कैसे, दर्द से बोलो
दाग, ज़ख्म का भले मिटाया जा सकता है
मेरी हसरत का हर गुलशन खिला हुआ है
फिर कोई तूफ़ान बुलाया जा सकता है
अश्क़ सरापा ख़्वाब मेरे कहते हैं मुझसे
पलकों पर ठहरे आंसू पूछे है मुझसे
कब तक सब्र का बांध बचाया जा सकता है
वज्न तसल्ली का तेरी मैं उठा न पाऊं
मुझसे मेरा दर्द उठाया जा सकता है
इतनी यादों की दौलत हो गयी इकट्ठी
अब नदीश हर वक़्त बिताया जा सकता है
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...
ReplyDeleteबहुत आभार सर
Deleteपलकों पर ठहरे आंसू पूछे है मुझसे
ReplyDeleteकब तक सब्र का बांध बचाया जा सकता है
आपकी गजल... वजनी, शानदार, ओजपूर्ण व दिल को छूलेनेवालली है। मेरी शुभकामनाएँ लोकेश नदीश जी।
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ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया सर
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ReplyDeleteबिल्कुल सर आपकी सलाह महत्वपूर्ण होगी
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