आंसू अपनी आँख में


यूँ भी दर्द-ए-ग़ैर बंटाया जा सकता है
आंसू अपनी आँख में लाया जा सकता है

खुद को अलग करोगे कैसे, दर्द से बोलो
दाग, ज़ख्म का भले मिटाया जा सकता है

मेरी हसरत का हर गुलशन खिला हुआ है
फिर कोई तूफ़ान बुलाया जा सकता है

अश्क़ सरापा ख़्वाब मेरे कहते हैं मुझसे
ग़म की रेत पे बदन सुखाया जा सकता है
पलकों पर ठहरे आंसू पूछे है मुझसे
कब तक सब्र का बांध बचाया जा सकता है

वज्न तसल्ली का तेरी मैं उठा न पाऊं 
मुझसे मेरा दर्द उठाया जा सकता है

इतनी यादों की दौलत हो गयी इकट्ठी
अब नदीश हर वक़्त बिताया जा सकता है



7 comments:

  1. बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...

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  2. पलकों पर ठहरे आंसू पूछे है मुझसे
    कब तक सब्र का बांध बचाया जा सकता है

    आपकी गजल... वजनी, शानदार, ओजपूर्ण व दिल को छूलेनेवालली है। मेरी शुभकामनाएँ लोकेश नदीश जी।

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया सर

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    1. बिल्कुल सर आपकी सलाह महत्वपूर्ण होगी

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