सैकड़ों खानों में


सैकड़ों खानों में जैसे बंट गयी है ज़िन्दगी
साथ रहकर भी लगे है अज़नबी है ज़िन्दगी

झांकता हूँ आईने में जब भी मैं एहसास के
यूँ लगे है मुझको जैसे कि नयी है ज़िन्दगी

न तो मिलने कि ख़ुशी है न बिछड़ जाने का ग़म
हाय ये किस मोड़ पे आकर रुकी है ज़िन्दगी

सीख ले अब लम्हें-लम्हें को ही जीने का हुनर
कौन जाने और अब कितनी बची है ज़िन्दगी

वस्ल भी है, प्यार भी है, प्यास भी है जाम भी
फिर भी जाने क्यों लगे है अनमनी है ज़िन्दगी

अब कहाँ तन्हाई ओ' तन्हाई का साया नदीश
उसके ख़्वाबों और ख़्यालों से सजी है ज़िन्दगी

चित्र साभार : गूगल

6 comments:

  1. WOW... bahut hi khoobsurat gazal hai..

    झांकता हूँ आईने में जब भी मैं एहसास के यूँ लगे है मुझको जैसे कि नयी है ज़िन्दगी //
    सीख ले अब लम्हें-लम्हें को ही जीने का हुनर कौन जाने और अब कितनी बची है ज़िन्दगी//

    yah do sher to bas kamal hi hain.

    manju mishra

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  2. आहहह मार्मिक भाव लिए अनमोल अनुभूति .......उम्दा

    जिन्दगी के फलसफे न समझ सके ,
    जिन्दगी की खुशियाँ सम्भाल न सके ,
    जिन्दगी को अपनी जिन्दगी बना ली हमने ,
    भाई आपकी ग़ज़ल पढना हम भूल न सके ....;)

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  3. आपकी ग़ज़ल का एक एक अल्फ़ाज़ आपकी जिंदगी के हर फलसफों को बयाँ कर रहा है....

    बेहद ही खूबसूरत ग़ज़ल... भाई जी

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  4. शुक्रिया अभिषेक

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  5. लाज़वाब बहुत उम्दा रचना लोकेश जी👌👌👌

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया

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