घटा से धूप से और चांदनी से चाहते क्या हो?

भला मायूस हो क्यूँ आशिकी से चाहते क्या हो?
अभी तो आग़ाज़ ही है फिर अभी से चाहते क्या हो?

कहाँ हर आदमी दिल चीर के तुमको दिखायेगा
बताओ यार तुम अब हर किसी से चाहते क्या हो?

फ़क़त हों आपके आँगन में ही महदूदो-जलवागर
घटा से धूप से और चांदनी से चाहते क्या हो?


वफायें रोक लेंगी तुमको मेरी, है यकीं मुझको
दिखाकर इस तरह की बेरुखी से चाहते क्या हो?

छिपा सकते हो कब तक खुद से खुद को तुम नदीश
चुराकर आँख अपनी आरसी से चाहते क्या हो?

4 comments:

  1. बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल

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  2. शुक्रिया विक्रम जी

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  3. छिपा सकते हो कब तक खुद से खुद को तुम नदीश
    चुराकर आँख अपनी आरसी से चाहते क्या हो?
    ..... वाकई , चाहते क्या हो! सुभान अल्लाह!

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