वार जब भी तेरा याद आने लगा
ज़ख्म-ए-दिल मेरा मुस्कुराने लगा
लाखों दर्द अपने दिल मे छिपाये हुए
अपने चेहरे पे खुशियां सजाये हुए
खो गया मैं रिवाजों की इस भीड़ में
और खुद से ही खुद को छिपाने लगा
ज़ख्म ख्वाबों के रिसते रहे रातभर
दर्द कदमों पे बिछते रहे रातभर
तेरे वादों के जख्मों पे फिर मैं सनम
तेरी यादों का मरहम लगाने लगा
धूप खिलवत की तन को भिगोती रही
चाहतें रात भर मेरी रोती रही
फिर भी पतवार उम्मीद की थामकर
सब्र की धार मैं आजमाने लगा
हर खुशी को क्यूँ मुझसे ही तकरार था
क्यूँ निशाने पे ग़म के मैं हर बार था
जब भी, जो भी रुचा छिन गया मुझसे वो
जो मेरा था मुझे मुंह चिढ़ाने लगा
सुंदर, भाव मयी प्रवाहमयी
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया रंगराज जी
ReplyDeleteसुंदर प्रयास
ReplyDeleteशुक्रिया विक्रम सर
ReplyDeleteजी बिल्कुल आदरणीया
ReplyDeleteहर खुशी को क्यूँ मुझसे ही तकरार था
ReplyDeleteक्यूँ निशाने पे ग़म के मैं हर बार था
जब भी, जो भी रुचा छिन गया मुझसे वो
जो मेरा था मुझे मुंह चिढ़ाने लगा
सुन्दर अभिव्यक्ति ! आभार
शुक्रिया ध्रुव सर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
ReplyDeleteखुद से ही खुद को छुपाने लगा....
बहुत ही सुनदर.....लाजवाब.....
वाह!!!!!
http://eknayisochblog.blogspot.in
बहुत बहुत शुक्रिया
Deleteवाह्ह्ह...लाज़वाब👌👌
ReplyDeleteज़िन्दगी में बनते -बिगड़ते रिश्तों का सच कसक और कशिश के साथ उभरता है। विछोह और तड़पाने की मंशा में बिलखते ,कराहते दिल के जज़्बात जब अभिव्यक्ति बनकर उभरते हैं और वफ़ा को यद् करते हैं तो पाठक के अंतःकरण को छू लेते हैं। बधाई !
ReplyDeleteज़िन्दगी में बनते -बिगड़ते रिश्तों का सच कसक और कशिश के साथ उभरता है। विछोह और तड़पाने की मंशा में बिलखते ,कराहते दिल के जज़्बात जब अभिव्यक्ति बनकर उभरते हैं और वफ़ा को यद् करते हैं तो पाठक के अंतःकरण को छू लेते हैं। बधाई !
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया
Deleteसुन्दर।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया
Deleteभावनओं की स्पर्शी अभिव्यक्ति
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