मुझको मिले हैं ज़ख्म जो बेहिस जहान से
फ़ुरसत में आज गिन रहा हूँ इत्मिनान से
आँगन तेरी आँखों का न हो जाये कहीं तर
डरता हूँ इसलिए मैं वफ़ा के बयान से
साहिल पे कुछ भी न था तेरी याद के सिवा
दरिया भी थम चुका था अश्क़ का उफ़ान से
नज़रों से मेरी नज़रें मिलाता है हर घड़ी
इकरार-ए-इश्क़ पर नहीं करता ज़ुबान से
कटती है ज़िन्दगी नदीश की कुछ इस तरह
हर लम्हां गुज़रता है नये इम्तिहान से
चित्र साभार : गूगल
हर लम्हां गुज़रता है नये इम्तिहान..
ReplyDeleteउम्दाबयानी..
शुक्रिया पम्मी जी
ReplyDeleteभाव प्रवण व हृदयस्पर्शी ग़ज़ल
ReplyDeleteबहुत आभार विक्रम जी
ReplyDeleteक्या बात लाज़वाब, शानदार गज़ल👌👌👌
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आदरणीया
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