मुझको मिले हैं ज़ख्म जो बेहिस जहान से


मुझको मिले हैं ज़ख्म जो बेहिस जहान से 
फ़ुरसत में आज गिन रहा हूँ इत्मिनान से 

आँगन तेरी आँखों का न हो जाये कहीं तर 
डरता हूँ इसलिए मैं वफ़ा के बयान से 

साहिल पे कुछ भी न था तेरी याद के सिवा 
दरिया भी थम चुका था अश्क़ का उफ़ान से 

नज़रों से मेरी नज़रें मिलाता है हर घड़ी 
इकरार-ए-इश्क़ पर नहीं करता ज़ुबान से 

कटती है ज़िन्दगी नदीश की कुछ इस तरह 
हर लम्हां गुज़रता है नये इम्तिहान से 

चित्र साभार : गूगल 

6 comments:

  1. हर लम्हां गुज़रता है नये इम्तिहान..
    उम्दाबयानी..

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  2. शुक्रिया पम्मी जी

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  3. भाव प्रवण व हृदयस्पर्शी ग़ज़ल

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  4. बहुत आभार विक्रम जी

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  5. क्या बात लाज़वाब, शानदार गज़ल👌👌👌

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    1. बहुत बहुत आभार आदरणीया

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