लोकराग
संवरती रही ग़ज़ल
जब भी मेरे ज़ेह्न में संवरती रही ग़ज़ल
तेरे ही ख़्यालों से महकती रही ग़ज़ल
झरते रहे हैं अश्क़ भी आँखों से दर्द की
और उँगलियां एहसास की लिखती रही ग़ज़ल
2 comments:
दिगम्बर नासवा
March 29, 2017 at 8:35 PM
bhut khoob silsila hai is muktak ka ... sundar ...
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Lokesh Nashine
March 30, 2017 at 12:06 PM
बहुत शुक्रिया सर
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bhut khoob silsila hai is muktak ka ... sundar ...
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया सर
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