वस्ल की शब का है मंज़र आँख में ठहरा हुआ
एक सन्नाटा है सारे शहर में फैला हुआ
दोस्ती-ओ-प्यार की बातें जो की मैंने यहाँ
किस कदर जज़्बात का फिर मेरे तमाशा हुआ
क्यों मैं समझा था सभी मेरे हैं औ' सबका हूँ मैं
सोचता हूँ जाल में रिश्तों के अब उलझा हुआ
फुसफुसा कर क्या कहा जाने ख़ुशी से दर्द ने
आंसुओं के ज़िस्म का हर ज़ख्म है सहमा हुआ
रिस रही थी दर्द की बूंदें भी लफ़्ज़ों से नदीश
घर मेरे अहसास का था इस कदर भीगा हुआ