रुख़ से ज़रा नक़ाब उठे तो ग़ज़ल कहूँ,
महफ़िल में इज़्तिराब उठे तो ग़ज़ल कहूँ
इस आस में ही मैंने खराशें क़ुबूल की,
काँटों से जब गुलाब उठे तो ग़ज़ल कहूँ
छेड़ा है तेरी याद को मैंने बस इसलिए
तकलीफ बेहिसाब उठे तो ग़ज़ल कहूँ
अँगड़ाइयों को आपकी मोहताज है नज़र
सोया हुआ शबाब उठे तो ग़ज़ल कहूँ
दर्दों की इंतिहा से गुज़र के जेहन में जब
जज्बों का इन्किलाब उठे तो ग़ज़ल कहूँ
तारे समेटने के लिए शोख़ फ़लक से
धरती से माहताब उठे तो ग़ज़ल कहूँ
ठहरी है ग़म की झील में आँखें नदीश की
यादों का इक हुबाब उठे तो ग़ज़ल कहूँ
चित्र साभार: गूगल
वाह!!!!
ReplyDeleteअति सुन्दर...
शुक्रिया सुधा जी
ReplyDeleteबहुत सुंदर लाज़वाब गज़ल लोकेश जी।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आदरणीया
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